भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ. लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि बिना जनता को विश्वास में लिए और बिना संसद में संविधान संशोधन लाए, देश का संविधान बदल दिया गया. ऐसा क्यों किया गया? क्यों देश के लोगों से राय लिए बिना ही यह बदल दिया गया? सच तो यह है कि जिन संविधान सभा के सदस्यों ने यह न्यायपूर्ण
फैसला किया, उन्होंने न केवल देश के साथ एक बड़ा धोखा किया है, बल्कि संविधान और जनता के साथ भी खिलवाड़ किया है. क्या है संविधान का सच?
संविधान निर्माताओं ने क्या संविधान सभा के सदस्य के नाते एक चेहरा रखा और संविधान सभा के अलावा प्रोविज़नल पार्लियामेंट (अंतरिम संसद) के सदस्य के नाते दूसरा चेहरा रखा? यह एक सवाल है, लेकिन विश्वास नहीं होता कि ऐसा हुआ होगा. पर जब घटनाक्रम को सिलसिलेवार देखते हैं, तब लगता है कि ऐसा ज़रूर हुआ है. संविधान सभा की कुर्सी न्याय की कुर्सी थी, जिस पर बैठकर संविधान सभा के सदस्यों ने न्यायपूर्ण फैसला किया. पर अफ़सोस! जब वही लोग अंतरिम संसद के सदस्य के नाते काम करने लगे, तो यह कहने में कोई परहेज़ ही नहीं कि उन्होंने देश के साथ एक बड़ा धोखा किया है. दरअसल, यही दो चेहरे हमारा संविधान बनाने और संविधान सभा द्वारा अंतिरम संसद के रूप में कार्य करने के दौरान हमें देखने को मिलते हैं.
संविधान सभा में देश के भविष्य को लेकर गंभीर बहस हुई. बहस में कहीं पर भी देश को चलाने के लिए राजनीतिक दल की कल्पना नहीं थी. स्वतंत्रता आंदोलन विजय पा चुका था और हिंदुस्तान की आज़ादी लगभग तय हो चुकी थी. संविधान सभा हिंदुस्तान को आज़ादी मिलने से पहले 1946 में बन चुकी थी. संविधान सभा के सदस्यों ने न्यायपूर्ण और गरिमापूर्ण तरी़के से संविधान की रूपरेखा बनाई और उसमें हिंदुस्तान को आदर्श लोकतांत्रिक या जनतांत्रिक देश बनाने में कोई कोताही नहीं की. संविधान के हिसाब से यह देश लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा बनाई गई सरकार के सहारे चलेगा. लोकसभा में लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि जाएंगे और वे वहां पर बहुमत या सर्वसम्मति से अपने लिए सरकार चुनेंगे तथा उस सरकार का एक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री होगा. उन दिनों राजनीतिक दल भी मौजूद थे, लेकिन संविधान में कहीं पर भी राजनीतिक दल शब्द का जिक्र इसीलिए नहीं है, क्योंकि संविधान में एक गणतंत्र की कल्पना की गई है. दुनिया का सबसे पुराना गणतंत्र लिच्छवी गणतंत्र माना जाता है. उस गणतंत्र के अध्ययन से पता चलता है कि गणतंत्र को चलाने वाली सभा में कभी भी पक्ष या विपक्ष नहीं होता. सभी लोग एकसाथ बैठकर गुण या दोष के आधार पर फैसले लेते हैं और राज्य को चलाते हैं. इसी के आधार पर संविधान निर्माताओं ने संविधान में राजनीतिक दल शब्द का इस्तेमाल नहीं किया और संविधान सभा भी दलीय आधार पर नहीं चली. वह एक आदर्श गणतंत्र की संविधान सभा के रूप में ही काम करती रही.
तब आख़िर ऐसा क्या हुआ और कहां से यह राजनीतिक दल शब्द संसद के भीतर नज़र आया. हुआ यूं कि संविधान बनाते समय संविधान सभा के सदस्यों ने न्यायाधीश की तरह काम किया और एक ऐसा संविधान बनाया, जो भारत में सचमुच जनतंत्र का निर्माण करने वाला था. जब संविधान बन गया और यह संविधान 1950 में अंतरिम संसद में पास हो गया, तब राजनेताओं के कान खड़े हुए और उन्हें राजनीति नज़र आई और तभी से उन्होंने यह सोचना भी शुरू किया कि उनसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई. अगर संविधान 26 जनवरी, 1950 को पास न हुआ होता, तो शायद संविधान का पन्ना ही बदला जाता, लेकिन न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे राजनेताओं ने न्यायाधीशों की तरह ही व्यवहार किया और उन चीज़ों के बारे में कभी नहीं सोचा, जो राजनीति को हमेशा अपने कब्जे में रखने के रूप में सोची जा सकती हैं.
1950 में संविधान को अंतरिम संसद ने स्वीकार किया, क्योंकि 1952 तक संविधान सभा ही दोनों काम कर रही थी. पहले उसने संविधान बनाया और फिर उसी ने उसे भी स्वीकार किया और छोटे-मोटे क़ानून बनाए. जब चुनाव आयोग बन गया (चुनाव आयोग की कल्पना संविधान में है), तब अचानक राजनेताओं को ध्यान आया कि पार्टियों को भी संसद में लाना है. संविधान के अनुसार जनता के चुने हुए प्रतिनिधि यदि संसद में आ गए, तो पार्टियों का अस्तित्व संसद में समाप्त हो जाएगा, इसलिए उन्होंने जनतंत्र के खिलाफ पार्टी तंत्र को चुनाव आयोग के सहारे क़ानून बना कर दाख़िल कर दिया. दरअसल, इनका विश्वास था कि पार्टियां ही देश चला सकती हैं, इसलिए उन्होंने 1951 में जनप्रतिनिधित्व क़ानून पास किया. जनप्रतिनिधित्व क़ानून भी अंतरिम संसद ने पास किया. दरअसल, इसी के तहत राजनीतिक दलों ने चुनाव में हिस्सा लेने और अपने उम्मीदवार खड़ा करने की राह बनाई. चुनाव आयोग ने इसके आधार पर 1952 का आम चुनाव कराया, जिसमें लगभग 348 सीटें कांग्रेस को मिलीं और बाक़ी 100 सीटें दूसरे छोटे-मोटे दलों में बंट गईं.
अब सवाल यह उठता है कि भारत की जनता के भाग्य को अपनी मुट्ठी में बंद करने और लोकतंत्र को राजनीतिक पार्टियों की कैद में ले जाने के पीछे मुख्य दिमाग़ किसका था? उस समय वे सारे लोग मौजूद थे, जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन में सज़ाएं काटीं और लड़ाइयां भी लड़ीं. इनमें से कुछ के ऊपर गांधी जी को बहुत ज़्यादा विश्वास था. ये सारे लोग उस समय ज़िंदा थे, जब 1951 का जनप्रतिनिधित्व क़ानून बना. स़िर्फ एक शख्स हमारे बीच उस समय नहीं था, आज़ादी के आंदोलन का नेता, यानी मोहनदास करमचंद गांधी. आख़िर किस नेता के दिमाग़ में यह बात आई होगी कि राजनीतिक पार्टियों को चोर दरवाज़े से लोकसभा, विधानसभा या भारत की राजनीति में घुसा देना है. इनमें से कोई भी हो सकता है. राजेंद्र प्रसाद जी राष्ट्रपति थे, जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे और सरदार पटेल उनके कैबिनेट में थे. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सी राजगोपालाचारी, मौलाना आज़ाद एवं गोविंद वल्लभ पंत भी जिंदा थे. इन सारे लोगों ने बैठकर चुनाव आयोग के ज़रिए चोर दरवाजे से राजनीतिक दलों को लोकसभा में पहुंचा दिया. शायद यह इतिहास के गर्भ में रह जाएगा कि हिंदुस्तान की जनता के हित और संविधान के हित के ख़िलाफ़ आख़िर कोशिश की, तो किसने की? क्या कोई एक इसके लिए ज़िम्मेदार था, या ये सारे नेता ज़िम्मेदार थे?
दरअसल, इसका नतीजा बहुत भयानक निकला. पहली लोकसभा का समय बीत गया और दूसरी लोकसभा से लोकतंत्र का क्षरण होना शुरू हो गया. नतीजे के तौर पर देश की राजनीति में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार घुसने लगा और पहली बार दूसरी लोकसभा के दौरान कुछ बड़े स्कैंडल भी सामने आए. आज अगर हम भ्रष्टाचार की जड़ तलाशें, तो वह चोर दरवाजे से घुसाए गए पार्टी सिस्टम में नज़र आती है. एक मजेदार चीज. अगर कोई क़ानून संविधान से जुड़ा हुआ नहीं है, तो उसे सुप्रीम कोर्ट निरस्त कर देता है और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठती है, पर आश्चर्य की बात तो यह है कि इस क़ानून (जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951) के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ ही नहीं उठी, जबकि यह संविधान की किसी भावना के साथ मेल नहीं खाता, क्योंकि अगर राजनीतिक पार्टियों को भारत की संसद में घुसाना था, तो यह संविधान संशोधन द्वारा हो सकता था, लेकिन उस समय के नेताओं को डर था कि अगर उन्होंने तत्काल संविधान संशोधन किया, तो देश के लोगों को उनकी ईमानदारी पर शक हो जाएगा और इसीलिए यह किस्सा 1985 तक चला आया. पहली बार 1985 में संविधान संशोधन में पॉलिटिकल पार्टीज़ शब्द का इस्तेमाल हुआ, जब एंटी डिफेक्शन बिल संसद में आया. उस समय किस तरह से राजनीतिक दल में ़फैसले होंगे, संसदीय दल में कैसे कोई निकाला जाएगा, कैसे बर्खास्त होगा, कैसे उसकी सदस्यता जाएगी, आदि-आदि चीजें 1985 में संविधान में जुड़ीं.
अब सवाल उठता है कि अगर भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोज़गारी की जड़ में पार्टी सिस्टम है, तो क्या इस पार्टी सिस्टम के ऊपर दोबारा विचार नहीं करना चाहिए? दूसरा सवाल, अगर यह पार्टी सिस्टम मूल संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है, तो क्या इसके ऊपर देश के लोगों को नहीं सोचना चाहिए? तीसरी चीज़, क्या यह सवाल सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयोग से नहीं पूछना चाहिए कि जिस समय यह क़ानून बना था, उस समय के संविधान के लिहाज़ से क्या यह क़ानून सही है? हम देश में संविधान का शासन चलाने की बात करते हैं, हर आदमी यह दुहाई देता है कि इसमें संविधान का शासन है और संविधान के हिसाब से क़ानून बनाए जाते हैं, लेकिन सच यही है कि देश और जनता के हाथ से लोकतंत्र में सीधे सहभागिता का अवसर इस क़ानून ने छीन लिया है. दरअसल, आज राजनीतिक पार्टियां इस बात को सोचना ही नहीं चाहतीं कि आम जनता की भी कोई हिस्सेदारी शासन चलाने में हो सकती है! इस सोच का दूसरा परिणाम यह निकला कि हिंदुस्तान की जितनी भी लोकतांत्रिक या संवैधानिक संस्थाएं थीं, वे धीरे-धीरे मरने और ख़त्म होने लगीं या सरकारों ने उन्हें अपने शिकंजे में लेने की कोशिश शुरू कर दी. पार्लियामेंट का नक्शा कुछ यूं बना कि राजनीतिक दल अपने हित के हिसाब से उसे इधर से उधर घुमाने और नचाने लगे. आम जनता पार्लियामेंट के अंदर होने वाले नाटक को सकते की नज़र से देखती रही, क्योंकि उसे समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो रहा है और इस स्थिति ने लोगों के अंदर धीरे-धीरे लोकतंत्र के प्रति आस्था और अनास्था का भाव पैदा किया.
देश में हमारे संविधान को लेकर सवाल उठने लगे, जबकि सवाल संविधान को लेकर नहीं, बल्कि उसकी ग़लत व्याख्या करने वाले राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों को लेकर उठने चाहिए थे. लोगों की ज़िंदगी साल दर साल मुश्किल होने लगी, भ्रष्टाचार बढ़ने लगा, महंगाई बढ़ने लगी, अपराध बढ़ने लगे, बेरोज़गारी बढ़ने लगी और किसानों एवं मज़दूरों की समस्याएं भी बढ़ने लगीं. सच यही है कि पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था ग़रीब के पक्ष में न खड़ी होकर उसके ख़िलाफ़ खड़ी होती दिखाई दी. और सरकार, जिसकी कल्पना कल्याणकारी राज्य के रूप में की गई है, उसने बिना कुछ सत्य बताए, इस संविधान को ही एक तरह से बदल दिया. 1950 एवं 1952 में लागू किए गए पार्टी सिस्टम का चरम नज़र आया 1991 में. 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने देश के सामने एक खाका रखा कि वे देश में ख़ुशहाली और विकास की एक नई धारा लेकर आना चाहते हैं तथा देश से इंस्पेक्टर राज ख़त्म करना चाहते हैं. दरअसल, सरकार का नियंत्रण धीरे-धीरे बहुत ज़्यादा बढ़ चुका था और लोग इंस्पेक्टर राज से तंग आ चुके थे. ऐसे समय में, संविधान द्वारा रेखांकित लोक कल्याणकारी राज्य की जगह बाज़ार आधारित राज्य की कल्पना तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं उनके वित्त मंत्री ने की और 1992 से लेकर आज तक सरकार का चरित्र पूरी तरह से बदल चुका है.
किसी ने भी इस पर सवाल नहीं उठाया कि कैसे बिना जनता को विश्वास में लिए और कैसे बिना संसद में संविधान संशोधन लाए सरकारों को लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की जगह, बाज़ार आधारित और लाभ आधारित सरकार में बदल दिया गया, यानी देश का संविधान देश के लोगों से राय लिए बिना ही बदल दिया गया! ऐसे में धीरे-धीरे संविधान की किताब अलमारी की शोभा बनकर रह गई है. संविधान में लिखी गई सारी चीजें एक-एक करके ख़त्म होने लगीं और इसीलिए आज देश में संविधान को लेकर बहुत आदर की भावना लोगों में नहीं है. देश में ऐसी भी ताक़तें हैं, जिनमें नक्सलवादी प्रमुख हैं, जो कहती हैं कि यह संविधान ग़रीब के ख़िलाफ़ खड़ा है. दरअसल, जो संविधान केवल इस देश के ग़रीब के पक्ष में खड़ा होना चाहिए था, उसे 1992 के बाद संसद में गए लोगों ने ग़रीब के ख़िलाफ़ खड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. अब बाज़ार आधारित व्यवस्था कहती है कि सड़क पर चलना है, तो टोल टैक्स दीजिए, जबकि संविधान कहता है कि बुनियादी सुविधाएं सरकार को देनी चाहिए. संविधान कहता है कि लोगों के नागरिक अधिकार हैं, मूलभूत अधिकार हैं और किन कामों को सरकार को करना है, इसकी स्पष्ट व्याख्या दी गई है. लोक कल्याणकारी राज्य के लिए एक आदर्श शब्द वेलफेयर स्टेट हमारे संविधान में है और उसकी व्याख्या भी है, लेकिन सरकारों ने तो यह तय कर लिया है कि इलाज कराना है, तो महंगे अस्पतालों में जाओ और यदि शिक्षा पानी है, तो महंगे स्कूलों में जाओ. सरकार ने न तो शिक्षा का काम आगे बढ़ाया और न ही स्वास्थ्य का काम. महंगाई को खुलेआम बाज़ार के हवाले कर दिया गया. बेरोज़गारी दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही है, कृषि आधारित उद्योग बंद होते जा रहे हैं, मूल खेती अपनी लागत नहीं निकाल पा रही है और किसान क़र्ज़ के जाल में फंसकर लगातार आत्महत्या कर रहे हैं. पर सरकार ने चूंकि बाज़ार आधारित रुख़ अपना लिया है, इसीलिए अब उसे इस बात से कोई फ़़र्क ही नहीं पड़ता कि इस देश में कितने लोग कुपोषण से मर रहे हैं, कितने इलाज उपलब्ध न हो पाने की वजह से मर रहे हैं और कितने क़र्ज़ के जाल में फंसकर मर रहे हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि रोज़गार क्यों सृजित नहीं हो रहे हैं, इसकी चिंता भी सरकार को कतई नहीं है.
परिणामस्वरूप, जहां 1992 में 40 ज़िले और 2004 में 70 ज़िले नक्सलवाद से प्रभावित थे, वहीं आज 272 ज़िले सीधे नक्सलवाद के प्रभाव में हैं. इस संविधान विरोधी तरी़के पर चलते हुए सरकारों ने हमें ऐसी जगह पर पहुंचा दिया है, जहां लोग यह सोचने लगे हैं कि शांतिपूर्ण बात सरकार नहीं सुनती, इसीलिए धरना-प्रदर्शन करना बेकार है. हां, हिंसक क़दम उठाने की बात ज़रूर अब लोगों के दिमाग़ में तेजी से आ गई है. बहुत सारे प्रदेशों में जैसे ही रेल पटरियां 10-10, 15-15 दिनों के लिए लोगों द्वारा रोक ली जाती हैं, सरकार फौरन उनकी मांगों के ऊपर प्रतिक्रिया देती है. अगर उड़ीसा में आईएएस डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नक्सलवादियों द्वारा अगवा कर लिया जाता है, तो उनकी मांगें वहां की सरकार 72 घंटे के भीतर ही पूरी कर देती है. कुल मिलाकर, जो ग़लती 1952 में हुई, उसका यही परिणाम निकला कि संपूर्ण लोकसभा जनता की समस्याओं से दूर खड़ी दिखाई दे रही है. दरअसल, ज़्यादातर क़ानून ऐसे ही बन रहे हैं, जो जनता की तकलीफों को दूर नहीं करते, बल्कि देश के सत्ताधारी वर्ग और उससे हाथ मिलाने वाले कॉरपोरेट वर्ग को लगातार मदद करने वाले क़ानून बनते जा रहे हैं. एक भी ऐसा क़ानून नहीं बन रहा है, जो महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ हो और लोगों को भरोसा दिला सके.
अब स्कैंडल्स लाखों में नहीं होते, अब करोड़ों में भी नहीं होते, क्योंकि बोफोर्स स्कैंडल 64 करोड़ का था, जिसने राजीव गांधी के हाथ से सरकार ही ले ली थी, लेकिन उसके बाद अब तक पांच हज़ार करोड़, दस हज़ार करोड़, 15000 करोड़, 20,000 करोड़, एक लाख करोड़, एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ और 26 लाख करोड़ जैसे स्कैंडल हमारे सामने आ चुके हैं. इन सारे स्कैंडल्स में बिना पार्टियों का भेद किए हुए पक्ष और विपक्ष, दोनों के लोग शामिल दिखाई देते हैं. इतना ही नहीं, मनरेगा में घोटाला, किसानों की क़र्ज़ माफी योजना में घोटाला, आत्महत्या के सवाल के ऊपर विदर्भ में भेजे गए पैकेज में घोटाला, अनाज घोटाला और दवा घोटाला, यानी हर तरफ़ घोटालों की जैसे बाढ़ आ गई है.
अगर लोकसभा में संविधान के हिसाब से लोगों के प्रतिनिधि होते, लेकिन पार्टियों के प्रतिनिधि न होते, तो उक्त सारे घोटाले न होते, क्योंकि अगर एक व्यक्ति घोटाला करता, तो उसकी कॉन्स्टिटुएंसी के लोग, साथ बैठने वाले उसके दोस्त, संसद में उसके दूसरे साथी उस पर नैतिक प्रभाव डालते और वह भ्रष्टाचार वहीं पर रुक जाता. पर चूंकि अब पार्टियों का राज है, इसीलिए सांसद यह कहते हुए बच जाता है कि इसे तो हाईकमान ने हैंडल किया है. वैसे, यह भी एक सच है कि इतने बड़े घोटाले के पैसे अक्सर ऊपर भी जाते हैं, चाहे वह इस पार्टी की सरकार हो या उस पार्टी की. आज इस देश में यह सवाल प्रमुखता से उठाया जा रहा है कि क्या लोगों को संविधान के साथ हुई इस धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ खड़ा होना चाहिए या फिर जैसी स्थिति है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए? दूसरा सवाल यह कि क्या इस देश का सुप्रीम कोर्ट इतने बड़े सवाल के ऊपर संवैधानिक बेंच बनाने की पहल करेगा या नहीं? मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक बेंच नहीं बनाएगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में भी बहुत सारे लोगों के इंटरेस्ट सत्तारूढ़ दलों के साथ जुड़ते दिखाई देते हैं. शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होते ही दो दिनों के भीतर जज साहबान को कोई न कोई पोस्टिंग मिल जाती है. हिंदुस्तान की जनता सुप्रीम कोर्ट में बहुत विश्वास रखती है, इसीलिए अगर यह सवाल तेज़ होता है, तो आशा करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक बेंच बनाएगा और इस बात का ़फैसला भी करेगा कि 1947 और 1951 के बीच देश की जनता की क़िस्मत और देश के संविधान के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ कैसे हो गया? और साथ ही साथ यह ़फैसला भी करेगा कि आज जितनी चीजें चल रही हैं, वे संविधान के हिसाब से कितनी सही हैं?
अगर सन् 85 में पार्टी शब्द जोड़ा गया, तो क्या उसके पहले जितनी चीजें हुईं, वे ग़लत थीं या जो संविधान संशोधन सन् 85 में किया गया, वह भी एक तरी़के से मूल संविधान की भावना के विपरीत संशोधन है? ये सवाल जितने क़ानूनी और संवैधानिक हैं, उतने ही राजनीतिक भी हैं. हिंदुस्तान की जनता के सामने दो रास्ते हैं. पहला, जैसा चल रहा है, उसे चलने दिया जाए और महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोज़गारी को यूं ही बढ़ने दिया जाए. दूसरा, वह पार्टी सिस्टम के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाए, अपने बीच के लोगों को चुनाव में खड़ा करे और उन्हें वोट दे. अगर लोग पार्टियों की बजाय आम जनता के उम्मीदवारों को वोट देंगे, तो दूसरी तस्वीर देश के सामने आएगी और वह तस्वीर कम से कम आज बनी हुई तस्वीर से बहुत बेहतर ही होगी, क्योंकि उसमें भ्रष्टाचार, महंगाई एवं बेरोज़गारी के रंग बहुत धुंधले होंगे.
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Assembly Elections 2017 Uttar Pradesh (403/403) Punjab (117/117) Goa (38/40) Party Lead Won Total SP+INC 38 28 66 BJP + 193 119 312 BSP 10 10 20 RLD 00 01 1 Others 03 01 4 Party Lead Won Total SAD+BJP 01 16 17 INC 04 74 78 AAP 00 20 20 BSP 0 0 0 Others 00 02 2 Party Lead Won Total BJP 02 12 14 INC 01 13 14 AAP 0 0 0 MGP + 00 03 3 Others 00 07 7 Uttarakhand (70/70) Manipur (60/60) Party Lead Won Total INC 04 07 11 BJP 15 42 57 BSP 0 0 0 UKD 0 0 0 Others 01 01 2 Party Lead Won Total INC 09 16 25 BJP 06 18 24 AITC 0 01 1 NPF 01 03 4 Others 02 04 6
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